पूरा देश सोते-जागते हिंदू-मुसलमान क्यों कर रहा है? कोई तो वजह होगी। दिमाग के घोड़े दौड़ाइये और याद कीजिये कि आखिर 20 साल में ऐसी कौन सी घटना हुई है, जिसकी यादें समाज को इस कदर विभाजित कर दे कि बुजुर्गवार कामधाम छोड़कर हिसाब-किताब करने लगें कि 1947 के बंटवारे के दौरान पूरी आबादी की अदला-बदली क्यों नहीं हो पाई ?
दिमाग के घोड़े दौड़ाकर भी आपको कुछ याद नहीं आएगा। आधुनिक भारत को सांप्रादायिक तौर पर विभाजित करने वाली बड़ी घटनाएं दो ही हैं। लेकिन दोनों बीस साल से ज्यादा पुरानी हैं। पहली बाबरी विध्वंस और दूसरी घटना गुजरात दंगा। उसके बाद देश के किसी भी हिस्से कहीं कोई ऐसा सांप्रादायिक टकराव नहीं रहा, जिसे रेखांकित किया जा सके। इन दोनों घटनाओं को पीछे छोड़कर देश और समाज अपनी गति से आगे बढ़ा।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण 2014 नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव कैंपेन है। `मोदी ना तो कटोगे तो बटोगे’ कर रहे थे और ना `एक हैं तो सेफ है’ का नारा दे रहे है। उन्होंने अपने कैंपेन में ना तो कपड़ों से दंगाइयों को पहचानने की वकालत की, ना किसी हिंदू औरत के मंगलसूत्र लुटवाये। 2014 के मोदी के पूरे कैंपेन आप एक भी ऐसा शब्द नहीं ढूंढ सकते, जिसके आधार पर उनके कैंपेन को सांप्रादायिक करार दिया जा सके।
थोड़ा और पीछे चलें तो नरेंद्र मोदी की दिल्ली की तख्त पर दावेदारी की खबर आते ही एक लॉबी ने उनके पक्ष में यह कहकर फील्डिंग शुरू कर दी थी कि वो एक ऐसे राजनेता हैं, जिन्हें सबसे ज्यादा गलत समझा गया है। मोदी के राज्य में एक बार दंगा हो गया तो इसका मतलब यह नहीं है कि सांप्रादायिक छवि उनपर हमेशा के लिए चिपका दी जाये। असल में वो एक विकासोन्मुख नेता हैं और उनका फोकस सिर्फ प्रगति पर है। इस नैरेटिव को आगे बढ़ाने में देश के कई बड़े मीडिया समूह, कॉरपोरेट घराने और सरेश जफरवाला जैसे गुजरात से आनेवाले मुस्लिम उद्योगपति तक शामिल थे।
आप बीजेपी का 2014 का घोषणा पत्र ढूंढकर पढ़िये। हर पन्ने पर विकास की गंगा बह रही थी, उसके सिवा कुछ और नहीं। राम मंदिर को बड़ी मुश्किल से पेज नंबर 70 पर जगह मिल पाई थी। व्हाट्स एप देश में ज्यादा पुराना नहीं था और उस पर ऐसे मैसेज आ रहे थे कि गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी रविवार के दो घंटे इसलिए खाली रखते हैं,ताकि आईआईटी की तैयारी कर रहे बच्चों को गणित पढ़ा सकें।
इन सबका असर ये हुआ कि देश के अच्छे दिन आ गये। मोदी को इतनी सीटें मिली जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी। सवाल ये है कि अगर मोदी 2014 में अभी जैसे नारे उछालते तो कभी इतनी प्रचंड जीत मिलती? शायद साधारण बहुमत भी नहीं मिलता क्योंकि गोधरा अब तक उनका पीछा कर रहा था और मोदी का रुख इसे लेकर लगातार रक्षात्मक था। करन थापर का `दोस्ती बनी रहे’ वाला इंटरव्यू कौन भूल सकता है।
प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी अपने पहले इंटरव्यू में मोदी ने दो उल्लेखनीय बातें कहीं थीं, पहली ये कि किसी के भी खिलाफ मैं बुरी नीयत से कोई कदम नहीं उठाउंगा और दूसरी ये कि वो देश के मदरसा जाने वाले मुसलमानों को एक हाथ में कंप्यूटर और दूसरे में कुरान देखना चाहते हैं। उनका दावा था कि एक बार अगर इस देश के मुसलमान उन्हें ठीक से जान जाएंगे तो उन्हें इतना प्यार देंगे जितना कभी किसी को ना दिया हो।
घटनाक्रम विस्तार से बताने लगूं तो यह लेख बहुत लंबा हो जाएगा लेकिन मोटी बात ये है कि मोदी के दावों की कलई उस वक्त खुलनी शुरू हुई जब गाय बचाने के नाम पर पूरे देश में मुसलमानों की लिचिंग शुरू हो गई। लाख अपील के बावजूद मोदी ने इन घटनाओं पर कोई अफसोस नहीं जताया। 2015 के बिहार चुनाव में उन्होंने पहली बार सांप्रादायिक प्रतीकों का इस्तेमाल किया और 2017 के यूपी चुनाव के आते-आते खुलकर कब्रिस्तान और श्मशान तक पहुंचे।
अच्छे दिन लाने के दावे हवा-हवाई साबित हुए और 2018 आते-आते बेरोजगारी की दर 45 साल के उच्चतम स्तर को छूने लगी। अलोकप्रियता इस कदर बढ़ी कि बीजेपी ने कई राज्यों में सत्ता गंवाई और मोदी 2018 में अपना गढ़ गुजरात भी हारते-हारते बचे। इसी अलोकप्रियता के आलम में 2019 के लोकसभा चुनाव की उल्टी गिनती शुरु हुई और मोदी के राजनीतिक करियर के कई दैवीय संयोगो की तरह अचानक पुलवामा की घटना हो गई।
देश का माहौल रातो-रात बदल गया। पुलवामा के शहीदों के नाम पर खुलकर वोट मांगे गये। बालाकोट एयर स्ट्राइक को कैंपेन का आधार बनाया गया और मोदी दोबारा प्रचंड बहुमत से सत्ता में आ गये। उसके बाद से राष्ट्रवाद का नकाब ओढ़ी सांप्रादायिक राजनीति पूरी तरह नंगी हो गई। कश्मीर से कन्याकुमारी तक चिंगारी भड़काई गई और उसे हवा दी गई। हालांकि 2020 के दिल्ली दंगों जैसी घटनाओं को छोड़ दें तो ज्यादा बड़े फसाद कही नहीं हुए। लेकिन धीरे-धीरे सांप्रादायिक के जहर को सुबह की चाय और डिनर से पहले के सूप की तरह सर्व किया जाने लगा।
बीजेपी के वोटरों का एक तबका इतना मासूम है कि उसे कभी समझ में नहीं आएगा कि यह सिलसिला क्यों और कैसे शुरू हुआ। अच्छे दिन लाने वाला प्रधानमंत्री सोते-जागते उसे उसके पड़ोसी मुसलमान से क्यों डराने लगा। अपने समर्थकों की नज़र में नरेंद्र मोदी उन्हें एक बड़े खतरे से बचा सकते हैं। लेकिन दिलचस्प बात ये है कि ये खतरा उनका खुद का पैदा किया हुआ, उनके आने से पहले दूर-दूर तक उसका कोई नामो-निशान नहीं था।
सांप्रादायिकता की राजनीति मोदी का रक्षा कवच है। इसके बिना वो पूरी तरह निहत्थे और असहाय हैं। लेकिन यह शेर की सवारी भी है। जो भी एक बार शेर की पीठ पर सवार हो गया वो कभी उतर नहीं पाएगा। नरेंद्र मोदी उसी सांप्रादायिकता की पीठ पर आजन्म बैठे रहने के लिए शापित हैं और पूरा देश उसके परिणाम भुगतने के लिए अभिशप्त है।