देश और दुनिया के सामने बहुत बड़ी समस्याएं हैं। लेकिन भारतीय मीडिया का पसंदीदा टॉपिक हिंदू-मुसलमान है। व्हाट्स एप ग्रुप्स का प्रिय विषय भी यही है। आप चाहे ना चाहे इस बहस में घसीटे ही जाएंगे। स्थितियां ऐसी होगी कि आपको मजबूरन रियेक्ट करना पड़ेगा।
ईद से पहले मुख्यमंत्रियों के बयान सुनिये। सड़क पर नमाज पढ़ने वालों का पासपोर्ट रद्द किया जाएगा। आखिर क्यों और किन नियमों के तहत?
जब ईश्वर ने आपको आंखें दी हैं, तो दृष्टि बाधित की तरह आचरण नहीं करना चाहिए। नमाज पढ़ना मुसलमानों का सामूहिक धार्मिक कृत्य है। कुछ वैसा ही जैसा दशहरे और गणेशोत्सव जैसे दर्जनों धार्मिक आयोजनों में आपका बड़ी संख्या में सड़क पर आना और पूजा पंडालों में जाना।
अलग-अलग धर्म समूहों के व्यवहार से तुलना करें तो नमाज सबसे शांति प्रिय धार्मिक व्यवहारों में एक है। व्यक्ति अपनी जगह पर खड़ा होता है, झुकता है, अलग-अलग योग जैसी मुद्राओं में ईश्वर की इबादत करता है और फिर अपने घर चला जाता है।
अगर रमजान के महीने में चार बार किसी खास इलाके में मस्जिद के बाहर सौ-दो सौ लोग एक साथ खड़े हो गये और प्रार्थना करके अपने घरों को चले गये तो आपको क्या परेशानी है?
जो प्रश्न किसी की निजी कुंठे से उपजे हों और धीरे-धीरे सामूहिक बन जायें उनके तार्किक उत्तर नहीं होते। नफरत का इंजेक्शन ले-लेकर हिंदू बहुसंख्यकवाद एक ऐसी उग्र भीड़ में तब्दील हुआ है जो सिर्फ परपीड़ा का आनंद लेना चाहता है। इस आनंद को वो अपना अधिकार समझता है।
मुसलमानों के किसी भी त्यौहार के महीने भर पहले से सोशल मीडिया पर नौटंकी शुरु हो जाती है। नेताओं के बयान आने लगते हैं। बकरीद को लेकर शाकाहार पर ज्ञान वो लोग भी देते हैं, जिन्हें करीम के कबाब और निजाम काठी रोल बहुत पसंद हैं।
बहुत से स्वयंभू अहिंसावादी और नये नवेल वीगन तक प्रवचन देते दिखाई देते हैं। दशहरे पर बड़ी संख्या में होनेवाली बलि से उन्हें फर्क नहीं पड़ता लेकिन बकरीद अचानक एक महीने के लिए अंतरराष्ट्रीय समस्या बन जाती है।
लौटते हैं नमाज पर। मुझे याद है,जब बाबरी मस्जिद गिराई गई थी, तब विनोद दुआ ने उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ का एक लंबा इंटरव्यू किया था। बिस्मिल्लाह खाँ सिर्फ बनारस की गलियों, विश्वनाथ जी गंगा अपने शहनाई वादन पर बात करते रहे।
बहुत कुरेदे जाने पर बाबरी विध्वंस के बारे में उन्होंने सिर्फ इतना कहा— “ जिन लोगों ने ये किया है, अपनी समझ से अच्छा ही किया है। लेकिन नतीजा देश के सामने है। मुझे तो नमाज पढ़ने से मतलब है। किसी भी पेड़ के नीचे जाएंगे, जाजिम बिछाएंगे और नमाज पढ़ लेंगे।“
अच्छा है, खाँ साहब अब इस दुनिया में नहीं हैं, वर्ना उनका भी पासपोर्ट रद्द हो जाता। यू ट्यूब पर देखिये आपको कई ऐसे वीडियो मिलेंगे जहां कोई बुजुर्ग ट्रेन की अपर बर्थ पर बैठा चुपचाप नमाज पढ़ रहा है, और कोई सहयात्री उसे हूट कर रहा है।
एक नया चलन शुरू हुआ। फरमान जारी हुआ कि शुक्रवार को हम भी सड़कों पर हनुमान चालीसा पढ़ेंगे। बड़ा बवाल कटा फिर लोग गायब हो गये।
मैं दावे के साथ कह सकता हूं जिन लोगों ने ये फरमान जारी किया था, उनमें से ज्यादातर हनुमान चालीसा याद नहीं होगा। बजरंग बाण, हनुमाष्टक, राम रक्षा स्त्रोत वगैरह तो छोड़ ही दीजिये। हनुमान चालीसा पढ़ेंगे वाली धमकी इस अंदाज़ में दी जाती है, जैसे कोई कह रहा हो मैं मां-बहन की गाली दे दूंगा। अपने धार्मिक प्रतीकों को हास्यास्पद कौन बना रहा है?
जो मुख्यमंत्री सड़क पर नमाज पढ़ने वालों के पासपोर्ट छीनने और बुलडोजर चलवाने के लिए तैयार बैठा है, वही मुख्यमंत्री कह रहा है कि होली में अगर किसी ने मस्जिदों पर रंग फेंक दिया तो कौन सी बड़ी बात हो गई। क्या मुसलमान रंगीन कपड़े नहीं पहनते।
ज़हरीली राजनीति ने हिंदू समाज को एक ऐसा कुंठित और बीमार समूह बना दिया है, जिसका कोई इलाज दिखाई नहीं देता। अगर आपसे कहा जाये कि योगी आदित्यनाथ मार्का आचरण ही आदर्श हिंदू व्यवहार है तो आप क्या करेंगे? बहुत से लोग संभवत: अपने लिए कोई नई पहचान चाहेंगे।
पाकिस्तान में फैलते हिंसक कट्टरवाद से आहत होकर निदा फाजली ने एक शेर कहा था—
उठ-उठ कर मस्जिदों से नमाजी चले गये
दहशतगर्दों के हाथ में इस्लाम रह गया
ये शेर आज के भारत पर पूरी तरह सटीक बैठता है। नई हिंदू पहचान अब मस्जिदों के आगे डीजे पर नाचने वाले लौंडों के हाथ में है