श्रीलंका, बंग्लादेश और नेपाल में एक पैटर्न खोजने की कोशिश है। विशेषकर सत्ता समर्थंक वर्ग भय में है। सोशल मीडिया पर छिपी धमकियां और खुली चेतावनी दे रहा है।
सहमे संघियो को राहुल गांधी,CIA, चीन और जार्ज सोरोस की चौकड़ी का अगला टारगेट, मोदी सरकार नजर आती है। पर क्या सचमुच भारत मे ऐसी क्रांति हो सकती है?
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पहले इस डर का कारण.. याने पैटर्न में समानता ढूढते हैं।
1- इन देशों में लंबे समय से काबिज सरकारें, वन मैन शो और लगभग तानाशाह थीं। चुनी हुई थी, मगर चुनावी प्रक्रिया जनता में जनता को संदेह रहा। श्रीलंका, बंग्लादेश में तो विपक्ष को साफ साफ क्रश किया गया।
नेपाल में थोड़ा अलग। वहां अस्थिर सरकारें, पक्ष-विपक्ष का घालमेल चला। आज तुम सत्ता मे, कल हम। लेकिन सत्ता पक्ष, मौजूदा विपक्ष को जेल में डालने से चूका नही। दो बार के उप प्रधानमंत्री को जेल में डालना, लोगो ने देखा।
2- जनता से कटी सरकारें। नकली विकास का कानफोड़ू शोर, मीडिया पर नियंत्रण। सत्ता एक खास वर्ग के हाथ, शेष देश की आवाज पर पहरे।
3- सीमित लोगो को ठेके, नीतियों का लाभ, अकल्पनीय धन। देश मे जबरदस्त आर्थिक असमानता, भयंकर बेरोजगारी, महंगाई, इस बीच नेताओ की दौलत का अंबार…
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इसके साथ खोखला राष्ट्रवाद, सामाजिक विभाजन और कड़वे सवाल को देशभक्ति के बरछे से बींधकर हत्या। भारत मे यही तत्व मौजूद है। लेकिन यहां किसी क्रांति के फूटने का डर बेमानी है।
कारण बुरे और अच्छे दोनों हैं।
सबसे पहले तो यही- कि हिंदुस्तानी जात, क्रांति के लिए बनी नही।
3000 साल के इतिहास में भारत मे कोई मैग्नाकार्टा न बना, रक्तहीन ग्लोरियस रिवोल्यूशन, या फ्रेंच/ रशियन जैसी खूनी क्रांति म हुई।
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यहां किसी सीजर पर डिक्टेटर बन जाने के कारण खंजर नही चला, तो इसका कारण समाजशास्त्रीय है। हम व्यक्तिगत स्तरों पर सोचते हैं।
निजी लाभ, धन, सम्मान, भय और लालच वगैरह, दूरगामी सामाजिक परिवर्तन के आदर्शों पर चटपट हावी होते हैं।बिकाऊ लोग हैं, तो भारत की मेधा में कलेक्टिव सोशल थिंकिंग नही है।
बहुत हुआ तो जाति, धर्म, लैंग्वेज के नाम पर छोटे, अस्थायी ब्लॉक्स बना सकते हैं। करप्शन भी हिस्सा मिले, तो सहनीय है।सिविल राइट, सामाजिक आर्थिक समानता, धर्मनिरपेक्षता- ये हमारी चेतना और समझ के स्तर से बहुत ऊपर की बातेंहै।
तब बिना कलेक्टिवल सोशल यूनिजन, किसी क्रांति का प्रश्न ही नही उठता।
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एक बार वह गांधी ने वह स्थिति बनाई।
बस एक बार..अंग्रेजो से लड़ने को।
तब जाति, धर्म, भाषा, उत्तर, दक्षिण, हिन्दू मुस्लिम से ऊपर उठकर इस देश को वन ब्लॉक बनाया। पर अंग्रेज जाने की गंध आते ही, उनका शीराज़ा बिखर गया। हम सब औकात पे जो आ गए।
तो आज जब देश मे सामाजिक विभाजन का सूचकांक, गगन भेद रहा है, किसी लिबर्टी, फ्रेटर्निटी इक्वलिटी के आदर्श के पीछे, हमारा खड़ा हो पाना असंभव है।
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हमारी राष्ट्रधारा पर गांधी का असर भी अगला कारण है।
पाकिस्तान, बंग्लादेश भारत से टूटे, वे जिन्ना की धारा पर चले। दंगे, डायरेक्ट एक्शन, हिंसा। नेपाल, श्रीलंका गांधियन धारा का हिस्सा कभी रहे नही। तो वहां बलप्रयोग, और हिंसा क्रांति का स्वीकृत मार्ग है।
नेपाल का ताजा इतिहास भी माओइस्ट ब्लडबाथ का है, और श्रीलंका में लिट्टे का। पड़ोस में सैनिक तख्तापलट, या अराजक हिंसा से सत्ता बदलना नार्मल है। मगर रिपब्लिक ऑफ इंडिया की गांधियन चेतना में यह तरीका नार्मल नही।
हमे इसको रिजेक्ट करने की ट्रेनिंग मिली है।
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याद करें, कैसे गांधी ने 1946 के नेवी विद्रोह के लोगो को समर्थन देने से इनकार किया। 1947 के बाद उन्हें जेल से तो छोड़ा गया, मगर आजाद भारत मे न तो नौकरी वापस मिली, न फ्रीडम फाइटर का दर्जा।
नेहरू ने कहा कि आजाद हिंद फौज के भारत पर अटैक का विरोध करेंगे। INA ब्रिटिश विद्रोहियो से बनी फौज थी। नेहरू ने INA ट्रायल लड़ा, जेल से छुड़ाया। लेकिन भारतीय सेना में वे वापस नही लिए गए।
सन्देश स्पस्ट था- सैनिक विद्रोह पूजनीय नही है।
वह नजीरें कायम हैं। तो आज भारत की सेना, पुलिस और हथियारबंद बल- नेताओ को मारकर, फांसी देकर, पाक बंग्लादेश की तरह सत्ता हथियाने की बात सोचना भी देशद्रोह समझते हैं। दे डोंट इवन थिंक इट
सो दे डोंट डू इट!!
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यह ट्रेनिंग जनता को भी मिली है।
गांधी ने सांडर्स की हत्या को देशभक्ति नही माना। वे चौरीचौरा के बाद आंदोलन रोकते है? क्यो, सोचिये। गांधी ने खुद हिंसक, बल प्रयोग से सत्ता परिवर्तन को इनकार किया।
जनता को भी इजाजत नहीं दी।
तो नेपाल के हालिया आंदोलन की तरह, पुलिस, प्रशासन
के अफसरों की हत्या, नेताओ की लिंचिंग, आगजनी, संस्थानो और सरकारी बिल्डिंगों पर कब्ज़ा करके, सत्ता बदलने की बात हम बुरा समझते हैं।
तो संघियो को डरना नही चाहिए। यहां राजा का सर काटकर आने वाली फ्रेंचनुमा रिवोल्यूशन नही होगी। राजपक्षे के घर की तरह कोई घुड़दौड़ मार्ग में नही घुसेगा।
यह हमारे गांधी का आदेश है।
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एक एश्योरेंस और भी।
कि भारत का विशाल आकार भी एक फैक्टर है। आप अन्ना के साथ लाखों लोग रामलीला मैदान में बिठा लें, हर राज्य की राजधानी में प्रदर्शन करें, किसानों की तरह दिल्ली घेर लें। लेकिन सरकार नही गिरती।
नेपाल में भन्नाए यूथ ने नेताओ को पीटा, इस्तीफे लिखवाए, आगजनी की। सरकार गिर गयी। 1973 से 75 तक भारत मे जेपी की टोटल रिवोल्यूशन के नाम पर यही तो हुआ था न।
सरकार गिरी क्या?
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हम हमेशा सरकारें चुनाव से हटाते हैं। वही सही है, क्योकि सबक यह है कि सरकारे हिंसक क्रांति से बदलनी भी नही चाहिए।
खूनी क्रांतियां अपने बच्चों को खा जाती है। 3 पीढियां पीछे धकेल दी जाती हैं। यह बात फ्रांस के लिए सही है, रूस और चीन के लिए भी। बंग्लादेश और श्रीलंका समृद्ध नही हुए, नेपाल भी गर्त की ओर है।
कोई नया तानाशाह आ जाता है। नजला जनता ही भुगतती है।
अरब स्प्रिंग या अमरीकी दखल से- इराक, लीबिया, मिस्र, ट्यूनीशिया.. जहां जहां रातोरात रेजीम बदले, वहां सुख नही है।
क्रांति के बाद सोसायटी और पोलिटी को स्थिर होते होते लाखों जीवन नष्ट हो जाते हैं। ये बात गांधी समझते थे।
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और राहुल गांधी समझते हैं।
सिम्पल एग्जाम्पल- वोट चोरी के ठोस प्रेजेंटेशन के बाद, इस सरकार को चोरी की सरकार, अवैध सरकार कहकर इस्तीफा मांगते, आंदोलन करते।
उदाहरण 1996-2005 का बंग्लादेश
कांग्रेसी देश ठप कर देते। जैसे गुंडाई के बल पर हाल में बिहार बन्द कराया गया, वैसे ही देश भर मे दंगा, आगजनी, हिंसा, हड़ताल, धरना प्रदर्शन। मुट्ठी भर असामाजिक तत्वों से दुराभिसन्धि। जो नेताओ को जमकर पीटते, घर जलाते, बम ब्लास्ट कराते।
उदाहरण-1975 का भारत।
पर यह कांग्रेस की लेगेसी नही। गांधी और नेहरू की राह नही। राहुल ने सिर्फ इलेक्शन कमीशन से जवाब मांगा, वहीं तक सीमित रहे। अभी भी सिर्फ वोटर रोल सुधार की मांग कर रहे हैं।
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इसे राहुल या कांग्रेस की कमजोरी माना जा सकता है।
तो मानिये।
और सत्ता समर्थंक जो वर्ग भय और संशय में है, सीआईए और जार्ज सोरोस के दुःस्वप्न देख रहा है, डरना बन्द करे। राहत की सांस ले।
यह सरकार, आराम आराम से, राजनीतिक प्रक्रिया से, जनादेश की लात खाकर जाएगी। खूनी क्रांतियां न भारत मे हो सकती हैं, न होनी चाहिए, और न राहुल करेंगे।
वो बेसब्र नही है, अराजक नही है।
ही इज टू गुड, टू लीड ए ब्लडी रिवोल्यूशन!!