24.3 C
Ranchi
Monday, June 30, 2025
Contact: info.jharkhandlife@gmail.com
spot_img
HomeBlogजीतते राहुल और हारती काँग्रेस

जीतते राहुल और हारती काँग्रेस

spot_img

न्याय योजना के तहत समता मूलक राजनीति की स्थापना और अर्थव्यस्था को पटरी पर लाने का राहुल गाँधी का दावा पुलवामा कांड के बाद पैदा हुए राष्ट्रवादी उन्माद की भेंट चढ़ चुका था। नरेंद्र मोदी अपना दूसरा टर्म हासिल कर चुके थे और अपनी ही पार्टी से रूठे राहुल काँग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद संभवत: अपनी अलोकप्रियता के शिखर पर थे।

Follow WhatsApp Channel Follow Now
Follow Telegram Channel Follow Now

उन्हीं दिनों मैंने एक लंबा फेसबुक पोस्ट लिखा था कि मैं राहुल गाँधी की राजनीति को गंभीरता से क्यों लेना चाहता हूं। पोस्ट लगभग वायरल हुआ तो मुझे बेहद हैरानी हुई। इस बात का मुझे कतई अंदाजा नहीं था कि समाज एक बहुत बड़ा तबका तमाम नाकामियों और कमियों के बावजूद राहुल गाँधी को भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी उम्मीद के रूप में देखता है।

2019 के बाद से पानी बहुत बह चुका है। एक दौर ऐसा भी था जब बीजेपी चाहती थी कि हर चुनाव राहुल बनाम मोदी हो। फिर 2024 भी आया जब वाराणसी में मिली मोदी की जीत के मुकाबले रायबरेली में राहुल गाँधी की जीत अंतर ढाई गुना ज्यादा रहा। ताजा आँकड़ा बिहार से आया है, जहाँ राहुल गाँधी 47 प्रतिशत युवाओं की पहली पसंद बनकर उभरे जबकि उसी सर्वे में नरेंद्र मोदी को 39 फीसदी वोट मिले हैं।

राहुल गाँधी तीन वजहों से भारतीय इतिहास के सबसे अनूठे राजनेता साबित हुए हैं। पहला कारण लगातार पिटने के बावजूद मैदान ना छोड़ने का ट्रैक रिकॉर्ड है। दूसरा और ज्यादा बड़ा कारण ये है कि वो इस देश पहले नेता है, जिन्होंने आरएसएस को मुख्य राष्ट्रीय समस्या के रूप में चिन्हित किया है और उससे सीधा टकराव मोल लेने को तैयार दिखाई दे रहे हैं।

तीसरा कारण सबसे बड़ा बन सकता है और वो है, काँग्रेस को विचारधारा की नई पिच पर लेकर आना। काँग्रेस अब पूरी तरह से सामाजिक न्याय की पार्टी है। राम मनोहर लोहिया जो सपना भारतीय समाज के लिए पचास और साठ के दशक में देखा करते थे, राहुल गाँधी अब उसे पूरा करने की सबसे बड़ी उम्मीद बन चुके हैं।

यकीनन आरएसएस से खुली लड़ाई और सामाजिक न्याय का जो रास्ता राहुल गाँधी ने चुना है, उसने उन्हें इंडियन पॉलिटिक्स का नया पोस्टर ब्वॉय बना दिया है। इस बात की कल्पना अब से पहले तक असंभव थी कि काँग्रेस के किसी नेता के पक्ष में स्वत:स्फूर्त तरीके से कोई ट्रोल आर्मी उठ खड़ी हो सकती है।

आज के दिन एक ऐसा पढ़ा लिखा तबका भी दिखाई देता है, जिसे राहुल गाँधी के बारे में कोई भी आलोचनात्मक बात सुनना पसंद नहीं है। किसी राजनेता की कामयाबी के लिए ऐसे कोर सपोर्ट बेस का होना जरूरी होता है। राहुल गाँधी ने यह सब हासिल कर लिया है। अब आते हैं, मूल मुद्दे पर जो इस लेख का आलोचनात्मक पक्ष भी है।

माना कि ब्रांड राहुल पुनर्जीवित हो चुका है। राहुल गाँधी दुनिया को ये बता चुके है कि चुनावी राजनीति करने वाले बाकी राजनेताओं के मुकाबले उनकी कथनी और करनी में विचलन बहुत कम है। ये भी साबित हो चुका है कि राहुल गाँधी सच्चे अर्थों में इकलौते निर्भय राष्ट्रीय राजनेता है, जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर संकट के वक्त देश के आम आदमी के साथ खड़ा होता है। लेकिन ये बातें सिर्फ एक राजनेता की छवि को निखारती हैं, चुनावी कामयाबी की गारंटी नहीं बनतीं।

राहुल गाँधी की छवि जितना निखरी है, उनकी पार्टी काँग्रेस लगातार उतनी ही कमजोर हुई है। काँग्रेस गंभीर समस्याओं में घिरी हुई पार्टी है। यह पूरी तरह साफ हो चुका है कि राहुल की संगठन चलाने में कोई दिलचस्पी नहीं है और उनमें इसकी योग्यता भी नहीं है।

चाहे राजस्थान में गहलोत और पायलट का झगड़ा हो या फिर हरियाणा में हूडा और शैलजा की तानातानी। आलाकमान किसी भी मामले में ऐसा रास्ता नहीं निकाल पाया जिससे पार्टी को होनेवाले नुकसान हो रोका जा सके।

राहुल गाँधी इस बात को समझते थे इसलिए वो लाख मनाने के बावजूद दोबारा अध्यक्ष बनने को तैयार नहीं हुए। इस समय उनकी हैसियत काँग्रेस में कुछ ऐसी है, जो सक्रिय राजनीति छोड़ने के बाद आजादी के आसपास महात्मा गाँधी की थी।

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल ने अपने भीतर के गाँधी को पहचाना। इस यात्रा ने उन्हें पूरी तरह बदलकर रख दिया। लेकिन सिर्फ एक यात्रा किसी को गाँधी में परिवर्तित नहीं कर सकती। राहुल गाँधी को कुल मिलाकर चुनावी राजनीति ही करनी है और स्थितियां बार-बार यही साबित करती हैं कि चुनावी राजनीति में सफल होने के लिए वो बहुत उपयुक्त व्यक्ति नहीं हैं।

बेहतर ये होता कि राहुल किसी और को आगे करके वही भूमिका अख्तियार कर लेते जो कभी कांग्रेस में महात्मा गाँधी की थी। लेकिन ऐसी कोई कोशिश होती नहीं दिखी है। राहुल गाँधी और कांग्रेस दोनों का द्वंद ये है कि उनके आदर्श गाँधी और लोहिया वाले हैं लेकिन उन्हें लौटना इंदिरा गाँधी के दौर में है। यानी पार्टी फिर से वही ताकत हासिल करना चाहती है। यह कैसे होगा इसका जवाब किसी के पास नहीं है।

वैचारिक स्तर और राजनीतिक कौशल दोनों मामलों में वक्त के साथ काँग्रेस का लगातार क्षरण हुआ है। इस बात को छोटे से उदाहरण से समझें। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव ने बता दिया कि सामाजिक न्याय की जमीन बहुत उर्वर है। लालू यादव ने बिहार की जीत के बाद एलान किया था कि जातिगत जनगणना की लड़ाई अब राष्ट्रीय स्तर पर लड़ी जाएगी।

इस बात का उत्तर ढूंढ पाना असंभव है कि काँग्रेस को सामाजिक न्याय के मोर्चे पर खुलकर आने में नौ साल क्यों लगे? काँग्रेस ने एक दलित को अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया लेकिन इस बात का प्रचार-प्रसार क्यों नहीं किया? 2024 का लोकसभा चुनाव जीतना असंभव था। काँग्रेस अगर चाहती तो दलित मल्लिकार्जुन खड़गे को पीएम पद का कैंडिडेट घोषित करके एक संदेश देश सकती थी लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।

काँग्रेस पार्टी अंतर्विरोधों में घिरी है और सबसे पुरानी पार्टी होने का थकान उस पर साफ दिखाई देता है। आप देश के किसी भी काँग्रेस कार्यालय में चले जाइये, आपको अंदाजा हो जाएगा कि राहुल गाँधी की ऊर्जा और पार्टी के एनर्जी लेबल में कहीं कोई साम्य नहीं है।

बेशक राहुल गाँधी वक्त से आगे सोचने वाले राजनेता है। कोरोना से लेकर विदेश नीति और अर्थव्यस्था तक पर उन्होंने सरकार को जो-जो चेतावनियां दीं, वो आगे चलकर सही साबित हुई। राहुल गाँधी ने 2019 में न्याय योजना की घोषणा की और नरेंद्र मोदी ने चुनाव जीतने के बाद डायरेक्ट सब्सिडी ट्राँफसर शुरू कर दिया।

राहुल गाँधी ने 2024 के चुनाव में एप्रेंटिशिप योजना का एलान किया और चुनाव के नतीजे आते ही मोदी ने उसे फौरन लागू कर दिया। राहुल गाँधी जातिगत जनगणना की माँग जोर-शोर से कर रहे थे और प्रधानमंत्री मोदी इसे अर्बन नक्सल आइडिया बता रहे थे। अब सरकार ने अचानक जातिगत जनगणना का एलान भी कर दिया है।

राहुल और उनके समर्थक संतुष्ट हैं कि उनकी हर बात सही साबित हो रही है और सरकार को उनके दिखाये रास्ते पर चलना पड़ रहा है लेकिन काँग्रेस को इससे क्या फायदा? बीजेपी को 240 सीट पर लाने का जश्न काँग्रेस ने महीनों तक मनाया और उसके बाद हरियाणा-महाराष्ट्र में जीती हुई बाजी हार गई।

राहुल गाँधी काँग्रेस की सबसे बड़ी ताकत है लेकिन काँग्रेस उनकी सबसे बड़ी कमजोरी है। खुद राहुल इस पार्टी का हिस्सा है और सबसे प्रभावी नेता भी। इसलिए नाकामी की जिम्मेदारी उन्हें खुद लेनी होगी। संगठन में नई जान फूंके बिना कुछ भी कर पाना नामुमकिन है। बेशक राहुल की निजी लोकप्रियता बढ़ती रहे लेकिन यही हाल रहा तो इतिहास उन्हें राजनीति के नाकाम नायक के रूप में ही याद करेगा।

Follow WhatsApp Channel Follow Now
Follow Telegram Channel Follow Now
spot_img
राकेश कायस्थ
राकेश कायस्थ
Media professional by occupation writer by heart

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

--Advertisement--spot_img

Latest News

spot_img
Floating WhatsApp Button WhatsApp Icon