हुआवेई का मालिक कौन है? करीब 177 बिलियन डॉलर की कम्पनी हुआवेई के सीईओ चेन रेंगफी हैं। फोर्ब्स में नाम छपता रहता है। रेंगफी बाबू बड़े आदमी है। कम्पनी के 1.5% शेयर उनके पास है। ●● 92%शेयर “हुवावेई इन्वेस्टमेंट एंड होल्डिंग कम्पनी ट्रेड यूनियन लिमिटेड” के पास है। यह कम्पनी के कर्मचारियों की यूनियन है। याने मुनाफे का 92% उसके कर्मचारियों में बंटता है। यह यूनियन “ऑल चाइना ट्रेड यूनियन फेडरेशन” के तहत रजिस्टर्ड है। यह फेडरेशन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सरकार) के नियंत्रण में होती है। तो घुमा फिराकर, इसे स्टेट कण्ट्रोल PSU जैसा मान सकते है। यह कम्पनी पूरे दम से, पूंजीवादी तरीको से अपना साम्राज्य बढाते हुए, दुनिया मे टेक्नॉलजी और संचार की मेजर प्लेयर बन गयी है। ●● यह एक उदाहरण है। चीन ने आधुनिक इतिहास में ऐसे अनेक प्रयोग किये है, जिन्हें आप कह सकते हैं- कैपिटलिस्ट वामपन्थ!!
भारत मे इसकी ईजाद बहुत पहले हो गई थी। एयर इंडिया याद है आपको? नेहरू दौर में 9 प्राइवेट एयरलाइन को मिलाकर एयरइंडिया बनाई गयी। पूंजी, जहाज, संसाधन सरकार का लगा। तो एयर इंडिया सरकारी कम्पनी थी। लेकिन चलाने वाला सीईओ, जेआरडी टाटा को बनाया गया। सरकार का प्रबंधन में, प्रेक्टीकली कोई दखल नही था। तब दस साल के भीतर एयर इंडिया विश्व की सबसे बड़ी, प्रेस्टीजियस एयरलाइंस में शुमार हो गई। मुनाफा बढ़ता गया, और सरकार को बैठे ठाले डिविडेंट बढ़ता रहा। जब तक कि मोरारजी न आ गए। वे नेहरू की वामपन्थी सरकार में, कैपिटलिस्ट आदमी माने जाते थे। लेकिन संस्कारी भी थे। तो संस्कार की मारे पीएम ने फ्लाइट में शराब परोसने पर प्रतिबंध लगा दिया। यह उस दौर की सभी लग्जरी एयरलाइंस की आम प्रैक्टिस थी। लम्बी फ्लाइट्स के लिए यात्री एयर इंडिया से कतराने लगे। पहली बार जनता सरकार के दौर में एयर इंडिया फिसली। कुछ बाता बाती हुई। जेआरडी को सीईओ पद से हटा दिया गया। इंदिरा आई, जेआरडी को वापस लाई। उन्होंने कुछ घाव ठीक किये। मगर 90 के दशक के बाद सरकारी दखल बढ़ता गया। बीस साल बाद, वह भंगार के भाव बिकी।
एक उदाहरण अमेरिका का देखें। धुर कैप्टलिस्ट देश है। यह सरकार सोशियल सिक्युरिटी और मेडिकेयर पर अपना 20% बजट खर्च करती है। हेल्थ और अन्य इंश्योरेंस कम्पनियो के खर्च को सोशल स्पेंडिंग मान लें, तो कोई 10-12% और जुड़ जाएगा। क्या नाम दें इसे- वामपन्थी कैपिटलिज्म? याद रहे कि भारत मे यह सरकारी स्पेंडिंग 6% है। अतिरिक्त 3% और जोड़ लें तो भी 10% पार नही होता। दरअसल, लोग यह महसूस नही करते कि कैपिटलिज्म हो, या कम्युनिज्म-दोनों एडम स्मिथ और कार्ल मार्क्स के जमाने से बहुत दूर खिसक आये हैं। वो क्रांति का एजेंडा, वर्ग संघर्ष, दुनिया के मजदूर एक हों, वगैरह- कबका पिट चुका। फ्लॉप है। बदलती दुनिया, बदलती एस्पिरेशन्स, ग्लोबल कोऑपरेशन, और प्रजातंत्र के प्रसार ने दोनों तरह के समाजों को मजबूर किया, कि वे वामपन्थ और पूंजीवाद के मसाले, विभिन्न अनुपातों में मिलाकर, नए नए नमूने बनायें।। और दोनों के इस्तेमाल से नागरिको का जीवन बेहतर करें। ऐसा करना, किसी भी प्योर “इज्म” के अंधानुकरण से बेहतर राह है। और पिछले पांच दशक में दुनिया इस मिक्स मसाले का बढ़िया स्वाद लेती रही। समृद्ध हुई। लेकिन इस कॉम्बिनेशन से समृद्धि, और प्रक्रिया में एक नया खतरा उभरा है।
सर्वशक्तिमान, वैश्विक फुटप्रिंट वाले, दानवाकार करपोर्रेशन्स का। इनकी मोनोपॉली का। आपके भोजन, दवा, संचार, वित्त सहित जीवन के हर आस्पेक्ट में एक शक्ति ऐसी है, जिसने अपनी मोनोपोली स्थापित कर ली है.. या करने की दिशा में है। सरकारों की शक्ति, उन ताकतों के साथ है, आपके नही। नेताओ के लिए धन और अगले चुनाव ऑब्जेक्टिव है। मोनोपोली के मालिकान का एजेंडा लम्बा औऱ गहरा। तो आम प्रबुद्ध व्यक्ति जब वामपन्थ या पूंजीवाद में किसी पक्ष को कोसता दिखता है, तो मुझे दया आती है। गुस्सा भी। पढ़े लिखे, प्रतिष्ठित लोग, दो सौ साल पुराने, वामपन्थ- पूंजीवाद के फलसफों पर अधकचरी बहस करते हुए, समझने में विफल हैं कि ये दोनों मिलकर उनके सिर पर अलग तरह से सवार हैं। किस तरह के लोग हैं हम? मार्क्सवादी वामपन्थी? स्मिथ कैप्टलिस्ट? चीन की तरह वामपन्थी कैप्टलिस्ट, या अमेरिका की तरह कैप्टलिस्ट वामपन्थी? नही। हम संस्कारी स्टुपिडिस्ट है। मेरा भारत महान, जननी जन्मभूमि स्वर्गादपि गरीयसी- इण्ड ऑफ डिबेट!! भोजन, दवा, आवागमन, व्यापार, वित्त, धातुओं, ऊर्जा, रिटेल, मीडिया, संचार – हर जगह एक मोनोपॉली बैठाई जा रही है। आपके रोजगार, जीवन, परिवार पर पुख्ता कण्ट्रोल हासिल कर रही है। तब चर्चा कम्युनिज्म, कैपिटलिज्म के कंकाल खोदने की जगह, सामने खड़े मोनोपोलिज्म पर होनी चाहिए।