महान रचना वही होती है, जो हर काल में प्रासांगिक बनी रहे। महाभारत मानव सभ्यता की ऐसी ही एक महागाथा है। कथा, उपकथाएं, पात्रों की जटिलताएं और उनके अंतर्सबंध, बात करने बैठो तो पूरा जीवन निकल जाये।
क्या भारतीय समाज के नैतिक मूल्य, संवेदना और जटिलताएं हमेशा एक जैसे रहे हैं? महाभारत के बहुत से प्रसंगों पर गौर करने पर ऐसा ही लगता है। कौरव महासभा का चीरहरण अध्याय एक ऐसा ही प्रसंग है।
धृतराष्ट्र की महासभा शूरवीरों से सजी थी। बड़े-बड़े ज्ञानी, तपस्वी, नीति मर्मज्ञ सब एक साथ उपस्थित थे। इसी महासभा में द्रौपदी एक विजित वस्तु की तरह केशों से खींचकर लाई गई और उसका चीरहरण प्रारंभ हुआ।
आर्यावर्त के सबसे शक्तिशाली लोगों की महासभा में किसी को यह साहस नहीं हुआ कि इस अन्याय के विरुद्ध मुँह खोल सके। राजसत्ता के आगे शौर्य,पराक्रम और नैतिकता अक्सर इसी तरह मौन साध लेते हैं। हर कालखंड में ऐसा ही होता आया है।
उस कौरव सभा में एक व्यक्ति था, जिसने अन्याय कि विरुद्ध मुँह खोलने का साहस किया। वह धृतराष्ट्र का 86वां पुत्र युयुत्सु था। उसने ना सिर्फ विद्रोह किया बल्कि युद्ध में पांडवों की ओर से लड़ा। युयुत्सु होने की विडंबना क्या है, यह धर्मवीर भारती ने अपने अपने नाटक अंधा युग में समझाया है।
युद्ध के महाविनाश के बाद युयुत्सु अपने माता-पिता से मिलने राजप्रसाद पहुँचा। वह एकमात्र जीवित कौरव था लेकिन धृतराष्ट्र और गाँधारी उसे लेकर घृणा से भरे हुए थे। उन्होंने अपने विद्रोही पुत्र को दुत्कार दिया। निराश युयुत्सु जब बाहर निकला तो उसकी नजर एक घायल कौरव सैनिक पर पड़ी।
वह सैनिक को पानी पिलाने पहुंचा लेकिन सैनिक ने युयुत्सु के हाथों पानी पीने से इनकार कर दिया क्योंकि उसने पहचान लिया कि मुझपर अग्निबाण छोड़ने वाला व्यक्ति यही है।
युयुत्सु सत्य का साथ देने निकला था, लेकिन युद्ध की सच्चाई कुछ और निकली उसे ना तो सत्य मिला और माता-पिता मिले। अंतत: उसने आत्महत्या कर ली। युयुत्सु की विडंबना हर युग में हर उस व्यक्ति की विडंबना है, जो सत्य और न्याय के पक्ष में खड़ा होना चाहता है। अपनों के हाथों ठुकराया जाना ही उसकी नियति है।
पांडव महाभारत में कौरवों को उन्हीं की भाषा में उत्तर देना चाहते थे। कृष्ण अंतिम समय तक प्रयास करते रहे कि किसी तरह युद्ध टल जाये। आखिर पांडवों ने कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरवों को उन्हीं की भाषा में जवाब दिया। हर तरह के छल छद्म अपनाये गये। कौरवों का नामो-निशान मिट गया लेकिन पांडवों का क्या हुआ?
बूढ़े होते पांचों पांडव बच गये लेकिन उनकी अगली पीढ़ी समाप्त हो गई। अर्जुन और सुभुद्रा के पुत्र निहत्थे अभिमन्यु को चक्रव्यूह में घेरकर मार दिया गया। शिविर में सोते द्रौपदी के पांचों पुत्रों की धोखे से हत्या कर दी गई। पांडवों की अंतिम निशानी अभिमन्यु की विधवा उत्तरा के गर्भ में पल रहा अजन्मा शिशु था।
द्रोण पुत्र अश्वत्थामा छल से की गई अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध की आग में जल रहा था। उसने उत्तरा के गर्भ की ओर लक्ष्य करके ब्रहास्त्र चला दिया। ब्रहास्त्र यानी उस काल का आण्विक हथियार। कृष्ण ने किसी तरह ब्रहास्त्र को बेअसर किया और अश्वत्थामा को रिसते हुए असंख्य घावों के साथ अनंत काल तक भटकते रहने का शाप दिया।
युद्ध अपने पक्ष में तर्क गढ़ लेता है लेकिन कृष्ण यही बताते हैं कि महासंहार वाले शस्त्रों का प्रयोग करने वाला व्यक्ति उसी घृणा का पात्र होता है, जैसा अश्वत्थामा है। वह आज भी भटक रहा है, अपने मवाद भरे असंख्य घावों के साथ और बता रहा है कि जनसंहार का दंड क्या होता है।
कालजयी उपन्यास तमस के पहले पन्ने पर भीष्म साहनी ने लिखा है “जो लोग इतिहास से कुछ नहीं सीखते हैं, वह उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं“ महाभारत का दृश्याँतरण करने के क्रम में राही मासूम रजा ने इसके जो संवाद लिखे हैं, उनमें हर जगह ऐसे ही भाव छिपे हैं। महाभारत का अद्भुत टाइटिल सांग रचने वाले पंडित नरेंद्र शर्मा की पंक्ति है “सीख हम बीते युगों से ले, नये युग का करें स्वागत।“
लेकिन बीते युगों से सीख कौन लेता है? काल का प्रवाह चलता है, नये लोग इस धरती पर आते रहे हैं और उन्हीं गलतियों को दोहराते रहते हैं। मनुष्य की नकारात्मक भावनाएं महान सभ्यताओं को बार-बार विनाश की ओर ले जाती है। ऐसा दुनिया के हर कोने में होता रहता है। स्टीफन हॉकिंग ने यूँ ही नहीं कहा है “लालच एक दिन इस धरती से मानव जाति का नामो-निशान मिटा देगा।“
महाभारत के बाद कई सदियां गुजरीं और आधुनिक काल के महान लेखक प्रेमचंद ने अपनी कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ लिखी। चौपड़ जिस तरह का रूपक था, शतरंज भी वैसा ही रूपक था। स्थितियां अलग, परिवेश, पात्र और कथानक सबकुछ अलग लेकिन विडंबना बोध वही।
मीर और मिर्जा को शतरंज की वैसी ही लत थी जैसी हमारे समाज को युद्ध कथाओं की है। अवध पर संकट के बादल छाये और इस बात का डर पैदा हुआ कि कहीं नवाब उन्हें जंग में शामिल होने के लिए ना बुला लें। मीर और मिर्जा शाही फरमान से बचने के लिए शतरंज लेकर शहर से दूर एक खंडहर में जा बैठे।
शतरंज की बिसात पर अपने वजीर और बादशाह को बचाने का जुनून ऐसा था कि एक चाल को लेकर तू-तू मैं-मैं हुई, उन्होंने तलवारें निकाल लीं और आखिर में एक-दूसरे की जान ले ली। उधर अवध पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। मीर और मिर्जा के लिए भी शतरंज वैसी ही आभासी दुनिया था, जैसे हमारे ड्राइंग रूम में ऑन टेलिविजन और उस पर चल रहा युद्ध का जयघोष है। वक्त बदलता है लेकिन मनुष्य और उसकी विडंबनाएँ वही रहती हैं।