बीजेपी के नये-नवेले लाड़ले शशि थरूर ने यूपीए सरकार में रहते हुए नेहरू की विदेश नीति को `नैतिकता की रनिंग कमेंट्री’ बताया था। नैतिकता हमेशा से सत्ता भोगने वाले तबकों के लिए आउट ऑफ फैशन और मजाक उड़ाने वाली चीज़ रही है।
सेकेंड वर्ल्ड वॉर के बाद की नैतिक प्रगति यह है कि जब दुनिया के ज्यादातर कोनों में राजमुकुट पहनकर लुच्चे आसन जमा चुके हैं। एक चोर दूसरे से डाकू से उम्मीद कर रहा है कि वो कुछ मर्यादित आचरण करे। ऐसे में यह समझ आता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उभर रही विश्व व्यवस्था को लेकर नेहरू की चिंताएं कितनी जायज थीं।
विश्व युद्ध खत्म होने के बाद के शुरुआती दशकों में भारत स्वयंभू नहीं बल्कि सही मायनों में विश्वगुरू था। नेहरू के भारत ने दुनिया के हर कोने में सिर उठा रही साम्राज्यवादी शक्तियों का विरोध किया। उपनिवेशवादवाद खिलाफ आवाज़ बुलंद दी और एक ऐसा विश्व जनमत तैयार करवाया जो शांति के पक्ष में था।
वो नेहरू ही थे जो 1954 में यूएनओ में परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव लेकर आये थे। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की बुनियाद रखने से लेकर कोरिया में शांति स्थापना तक शीत-युद्ध के दौरान हर बड़े शांति प्रयास के केंद्र में नेहरू थे। नेहरू ऐसा इसलिए कर पाये क्योंकि उनके पास अहिंसा पर आधारित भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत थी।
उस गौरवशाली इतिहास को दफन करने के लिए आरएसएस रात-दिन काम कर रहा है। नामीबिया से चीते आये तो महामानव ने हंसते हुए कहा कि “पहले लोग कबूतर उड़ाते थे और अब हम चीते छोड़ते हैं”
कबूतर उड़ाने वाले दलाई लामा को शऱण देने के मामले में मोरल स्टैंड लेते थे। पंचशील के बाद मिले धोखे के बाद जब युद्ध थोपा गया तो साधनहीन होने पर भी डटकर संघर्ष करते थे। देश की जनता से अपनी पराजय नहीं छिपाते थे और संसद के विशेष सत्र में अपनी पार्टी के सदस्यों के हमले झेलते थे।
चीता छोड़ने वाले चीन को जमीन कब्जाने देते हैं और उसके बाद दावा करते हैं कि ना कोई घुसा था और ना कोई घुसा है। अमेरिका की तरफ एक बार आंख दिखाये जाने के बाद अचानक पाकिस्तान पर सैनिक कार्रवाई रोक देते हैं और उसके बाद सी ग्रेड हिंदी सिनेमा के विलेन की तरह जनसभाओं में चवन्नी छाप डायलॉगबाजी करते हुए वोट मांगते हैं।
भारत जिस गुट-निरपेक्ष आंदोलन का नेतृत्व करता आया था, वो विश्व पटल पर हमारे देश का स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाये रखने में सहायक थी। साथ ही हमारे पास एक तरह की बारगेनिंग पावर भी थी।
पाकिस्तान के राजनीतिक टीकाकार हसन निसार ने एक बार कहा था “पाकिस्तान की विदेश नीति रक्कासा (वेश्या) की तरह है। इसके साथ किसी किस्म की नैतिकता नहीं जुड़ी है। अपने छोटे फायदे के लिए हम किसी की भी गोद में जा बैठते हैं।“
अफसोस यह है कि भारत को भी अब उसी राह पर धकेल दिया गया है। हम विश्व पटल पर अपनी स्वतंत्र आवाज़ और प्रभावी भूमिका खो चुके हैं। फिलीस्तीन जैसे मानवीय संकट पर चुप्पी और अमेरिका का पिछलग्गू होने का नतीजा यह है कि सौदेबाजी की ताकत भी हमारे हाथ से चली गई है। पाकिस्तान और चीन को हमने एक कर दिया है और हर चीज के लिए हम दुनिया के सबसे अनैतिक देश अमेरिका की तरफ देख रहे हैं।
पूरी दुनिया इस समय गहरे नैतिक संकट में फंसी है। संभवत: दुनिया को इस वक्त गाँधी की सबसे ज्यादा जरूरत है। लेकिन स्वयंभू विश्व गुरू गाँधी के हाथ में सफाई वाला झाड़ू थमाकर इस बात यकीन के साथ मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं कि उनका मास्टर स्ट्रोक से सत्य और अहिंसा जैसे शब्दों लोक स्मृति से हमेशा के लिए मिटा देगा।