विवेक अग्निहोत्री, पल्लवी जोशी के पति हैं। भारतीय टीवी का जाना माना चेहरा रही पल्लवी, तब युवाओ का क्रश हुआ करती थी।
मृगनयनी, तलाश,मिस्टर योगी, अल्पविराम और आरोहण जैसे सीरियल्स में दूरदर्शन से लेकर निजी चैनलों पर वे दिखी। पर उनकी ज्यादा याद बनी है भारत एक खोज से..
विभिन्न एपिसोड्स में वह कन्नगी बनी, रत्ना बनी,
शकुंतला बनी, मल्लिका बनी।
सीता बनी।
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दो दशक बाद वह वास्तविक जीवन में मंदोदरी के रोल में नजर आती है।
पति विवेक एक असफल फिल्मकार हैं।
पहली फ़िल्म, चॉकलेट को अनिल कपूर, सुनील शेट्टी और इरफान जैसे सितारों की मौजूदगी बचा नही सकी। इसके बाद बड़े सितारों ने इनसे तौबा कर ली।
आगे दोयम दर्जे के कलाकरों के साथ उनकी फिल्में आती, और पिटती रही। गोल, बुद्धा इन ट्रैफिक जाम कब आई, और कब गयी, यह विवेक के सिवाय बहुत कम लोगो को पता हैं।
और जिन्हें पता है, उसमे अधिकांश फ़िल्म से नुकसान खाने वाले, या उन्हें देखकर सिर पीटने वाले लोग हैं।
हताश निराश विवेक, अंततः नग्नता और सेमीपोर्न सिनेमा की शरण मे पहुचें। हेट स्टोरी बनाई। पब्लिक ने फिर भी हेट किया। फ़िल्म औंधे मुंह गिर गई।
लेकिन इसके बाद हेट ने विवेक के जेहनो दिल पर कब्जा कर लिया।
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अग्निहोत्री का बनाया सेक्स भी न बिका, उन्होंने मौजूदा सामाजिक परिवेश में फैली हेट को दुहने की राह खोजी।
नफरती प्रोपगंडा की शरण ली।
फिल्म आई ताशकंद फाइल्स।
फ़िल्म मित्रोखिन आर्काइव्स से शुरू होती हैं। दरअसल मित्रोखिन के खुलासे, शास्त्री के बाद के दौर के हैं। फ़िल्म में इसकी कोई इंवेस्टिगेशन नही। इतनी प्लॉटलेस औऱ ब्रेनलेस है कि प्रोपगैंडा का अतिरेक भी किसी नतीजे पर पहुचाये बगैर, द इण्ड हो जाता है। इसे फ्लॉप होना था।
फ्लॉप हुई।
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लेकिन फिर भी, राइट विंगर सपोर्ट से पहली बार विवेक को प्रचार मिला। लोगो ने जाना। उसे ऊर्जा मिली, इसके बाद कश्मीर फाइल्स आई।
कम्युनल पॉइजन, व्हाट्सप नरेटिव, दक्षिणपंथी समूहों के आव्हान, सोशल मीडिया पर बहस, और फ़िल्म के ऑस्कर में नॉमिनेट होने की फर्जी खबर ने चर्चा में।लाया। सरकारी कृपा से टैक्स फ्री होकर फ़िल्म ने दो सौ करोड़ कमा लिए।
यह अच्छा भी था,बुरा भी।
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अच्छा यह कि विवेक पल्लवी की गरीबी दूर हुई। बुरा यह कि इस प्रोपगंडा के तूफान से प्रभावित जो भी देशभक्त फ़िल्म देखने गए, वे इतना ऊबे कि आगे से विवेक के सिनेमा से दूर ही रहने की, भीष्म प्रतिज्ञा लेकर लौटे।
नतीजा द वैक्सीन वॉर कब आयी, गयी.. कोई नही जानता। अब बंगाल फाइल्स लेकर आये हैं। और उसे न देंखने पर जनता को गरिया रहे हैं।
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उन्हें खुद को गरियाना चाहिए।
सिनेमा विधा की नर्सरी कक्षा से पुनः सीखने की शुरआत करनी चाहिए। लेकिन उसके पहले आज तक जो सीखा और किया, उसे भूलना जरूरी है।
दरअसल आज विवेक की फिल्में, “फ़िल्म कैसे न बनाएं” का क्लासिक उदाहरण हैं। वे दर्शकों को मूर्ख समझते हैं।।विदेशी थ्रिलर्स की सस्ती नकल करते हैं।
खराब एडिटिंग, लंबे प्रोपगंडा मोनोलॉग, व्हाट्सप कहानियों का मंचन, कैरेक्टर्स एक-आयामी और ट्विस्ट प्रेडिक्टेबल, स्टोरी लाइन अनकोहरेन्ट होती है।
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दरअसल, साफ समझ आता है कि विवेक बाबू गलत लाइन में आ गए हैं।उन्हें नेतागिरी में उतरना चाहिए।
झूठ, बकवास, छिनरई, ओवरएक्टिंग, सस्तापन, मोनोलॉग, प्रोपगंडा, धूर्तता, काइयाँपन,, और इशारों में जनता से हिंसा का आव्हान, आज की सियासत के सफलतादाई तत्व हैं। विवेक में यह सब कूट कूटकर भरा है।
तो मेरी भविष्यवाणी है कि वह राजनीति में आएंगे। कुंडली नही, लॉजिक के आधार पर कहता हूँ- ऐसी बेहूदा फिल्में बनाकर जब वे कंगाल हो जाएंगे, तो राजनीति ही उन्हें शरण देगी।
बिकॉज पॉलिटिक्स इज लास्ट रिफ्यूज ऑफ स्काउंडरल्स।
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मियां बीवी की जोड़ी, सिनेमाई विधा की कातिल है। ये दोनों, (और इनके साथ अनुपम खेर) को देखकर उबकाई आती है। दिल से बेतरह बद्दुआएं और नफरत निकलती है।
इनके जैसे फिल्मकारों ने मुंबई फ़िल्म इंडस्ट्री की क्रिएटिविटी मिटा दी है। इस युग मे प्यासा, शोले, जंजीर, चक दे इंडिया औए पीके नही बन सकती। जो बन सकता है, उसकी विवेक पल्लवी जैसो ने मिट्टी पलीद करके रख दी है।
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“भारत- एक खोज” में राम की भूमिका, मोहम्मद गौस ने की थी। वही कृष्ण भी बने थे। सिनेमाई परदे पर उनसे रियलिस्टिक राम और कृष्ण कोई नही बना।
वहां मुसलमान अभिनेता के सामने सीता बनी पल्लवी, वस्तुतः प्रभु राम की अर्धांगिनी लगती थी। पूजनीय प्रतीत होती थी।
आज विवेक के साथ यह रावण मंदोदरी की जोड़ी लगती है। जो अपने फायदे के लिए अपने देश, बंधु बांधवों औऱ नागरिको के लहू से हाथ रंगने को तैयार हैं।
मैं इन दोनों को तहे दिल से लानत भेजता हूँ।