झारखंड में 1857 की क्रांति ने कई इतिहास रचे, लेकिन बहुत कम की चर्चा होती है। दो
अगस्त, 1857 रांची के इतिहास में दर्ज वह महत्वपूर्ण तारीख है, जब सैनिकों ने डोरंडा
छावनी में विद्रोह कर दिया। इसके हीरो थे जमादार माधव सिंह, सूबेदार नादिर अली
खान और हजारीबाग के जयमंगल पांडेय। इससे दो दिन पहले 30 जुलाई को हजारीबाग
में तैनात रामगढ़ बटालियन की आठवीं नेटिव इन्फेंट्री के जवानों ने विद्रोह कर दिया
था। इसकी आग रांची पहुंच चुकी थी। इधर, तख्तापलट के बाद ये सैन्य नेता के रूप
में उभरे और सैन्य सरकार का गठन किया।
बड़कागढ़ के शाही परिवार के विश्वनाथ शाही (शाहदेव) को विद्रोही
सैनिकों ने नेतृत्व की कमान सौंपी थी। हालांकि, वह इसके लिए तैयार नहीं थे। विश्वनाथ
शाही बड़कागढ़ (हटिया) के रघुनाथ शाही के पुत्र थे। 1857 में उनकी उम्र 35 साल थी। जब कमान उन्हें
सौंप दी गई, तो विश्वनाथ शाही ने समस्याओं से निपटना शुरू कर दिया।
वह एक संगठित सरकार के रूप में कार्य करने लगे। डोरंडा छावनी में
अधिकारी बंगलों को सुरक्षित कर क्रांतिकारी सरकार का मुख्यालय बनाया गया। स्थानीय
सरदारों से समझौता कर लिया गया। विद्रोह के सूत्रधार विश्वनाथ शाही ने आदिवासी और
गैर आदिवासी आबादी के बीच गहरा प्रभाव और प्रतिष्ठा कायम की।
डोरंडा-रांची में ब्रिटिश सत्ता समूह ने उनकी प्रतिष्ठा पर
यातनापूर्ण अतिक्रमण किया था। हालांकि, दो अगस्त से 21 सितंबर तक शहर उनके कब्जे में रहा। 22 सितंबर को डोरंडा पर
मेजर इंगलिश के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने पुनः कब्जा कर लिया।
दरअसल, अंग्रेजी सेना जब डोरंडा पहुंची तो विद्रोही सेना कुंवर सिंह से
मिलने के लिए यहां से रवाना हो गए थे। रास्ते में चतरा में उनकी अंग्रेजी सेना से
भीषण लड़ाई हुई। रांची से जाते समय यहां का खजाना खाली कर गए। कागजों को आग के
हवाले कर दिया गया। अंग्रेजों के बंगलों में आग लगा दी गई। अस्पताल को छोड़ दिया
गया, जहां 50 मरीज भर्ती थे।
शहर के बीच में खड़े जीईएल चर्च पर गोले दागे गए। मतांतरित ईसाइयों पर
भी हमले किए गए। उनके घरों को निशाना बनाया गया। चर्च के लोग भी विद्रोह को देखते
हुए रांची शहर छोड़ कर भाग गए थे। रामगढ़ राजा और पिठोरिया के राजा जगतपाल सिंह
अंग्रेजी सेना के साथ ही रहे।
बाद में इसका इनाम भी इन्हें मिला। बाद में तीन अक्टूबर को जयमंगल
पांडेय और नादिर अली पकड़ लिए गए। चार अक्टूबर को इन्हें फांसी दे दी गई। हालांकि, विश्वनाथ शाही और
गणपत राय बच निकले थे।
शाही का साथ देने वाले उमरांव सिंह, उनके दीवान शेख भिखारी और भाई प्यासी
सिंह को पकड़ लिया गया। जन आक्रोश को देखते हुए उन्हें ओरमांझी में फांसी न देकर
रांची लाया गाया और टैगोर हिल के निकट उमरांव सिंह और शेख भिखारी को आठ जनवरी 1858 को फांसी पर चढ़ा दिया
गया। इसी तरह दो सौ विद्रोही सिपाही भी पकड़े गए उन्हें शहीद चौक के पास फांसी दे
दी गई।
अंततः विश्वनाथ शाही भी विश्वनाथ दुबे और महेश नारायण शाही की
गद्दारी से पकड़ लिए गए और कुछ ही समय बाद पांडेय गणपत राय भी। दोनों पर संक्षिप्त
मुकदमा चलाकर ठाकुर विश्वनाथ शाही को 16 अप्रैल और गणपत राय को 21 को अप्रैल 1858 को शहीद चैक के पास
फांसी दे दी गई। इस तरह 1857 की क्रांति का दुखद अंत हुआ।