अमीर खुसरो जिन्हें धार्मिक एकता, हिंदू मुस्लिम सौहार्द सामाजिक जुड़ाव और सांप्रदायिक एकता का प्रतीक माना जाता है, वे हजरत निजामुद्दीन ओलिया के सबसे करीबी शागिर्द थे जिन्होंने हिंदवी भाषा जो भारत में एक बहुत बड़े इलाके में बोली जाती थी और हिंदी की जन्मदात्री कही जा सकती है, की हिंदुस्तान में बुनियाद रखी ।
खुसरो की शिक्षाएं जो हिन्दवी तथा अवधी भाषा में लिखी कविताओं के रुप में पाई जाती हैं, उनमें बहुलवादी हिंदुस्तानी सभ्यता पर जोर दिया गया है । ख़ुसरो जिनका जन्म 13 वी सदी में हुआ, एक आध्यात्मिक कवि थे, ने नामवर सूफी संत हजरत निजामुद्दीन ओलिया की शागिर्दी में रहकर अपनी रूहानी जरूरतों को शांत किया। उन्होंने फारसी मे अपने कविता लिखने के मूल रूप को तरजीह देते हुए रुबाइयों एव मसनवियों को देसी ढंग से हिंदवी और अवधी भाषा में ढाला। उनके द्वारा लिखे गए दोहे ,खासकर जो उन्होंने निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु के बाद लिखे, अक्सर अपने आप में एक पूरी कहानी पेश करते हैं । खुसरो ने अपने दोहो और मसनवियों के माध्यम से वहादत-अल-वजूद जैसी सूफी अवधारणा को लोकप्रिय बनाया जिसकी इन्होंने वेदांत के ‘अद्वैत दर्शन’ के साथ तुलना की और यह समझाया कि जो कुछ भी इस भूमंडल में स्थित है वह उस अलौकिक सच्चाई के विभिन्न पहलू है जो प्रत्येक वस्तु में परिलक्षित होते हैं और अंतत: दोनों चीजें एक ही सार की प्रस्तुति
हैं। खुसरो ने भारतीय संस्कृति के सद्भावनापूर्ण मूल्यों को एक मानवीयता से भरी अवधारणा ‘खिदमत-ए-खलाव’ (मानवता की सेवा) के द्वारा आगे बढ़ाया । उन्होंने सुलह-ए-कुल प्रथा की भी शुरुआत की जिसके अनुसार ईश्वर उन सभी का दामन थामता है जो पूरी इंसानियत के खातिर उसे ह्रश्वयार करते हैं और उसकी खातिर पूरी इंसानियत उसे ह्रश्वयार करती है । खुसरो ने सुलह-ए-कुल के फ़लसफे को अपनी नज़्मों और कविताओं में बड़ी खूबसूरती से ढाला है। उदाहरण के लिए- ‘ मैं प्रेम की पूजा करता हुआ एक बहुधर्मी हु,मेरे अंदर की प्रत्येक रग एक तार की भांति तन गई है। मुझे इसमे एक किसी ‘घुमाव’ की जरूरत नहीं है जो नस्ल,हिंदू या मुसलमान के रूप में हो।’ खुसरो की नज्में और शिक्षाएं आज बहुत ही प्रसांगिक हो गई हैं जिनका इस्तेमाल सौहार्द ,परस्पर सहिष्णुता और देश में रूहानी ह्रश्वयार को बढ़ावा देने के लिए किया जा सकता है।