1932 का मुद्दा अभी बंद भी नहीं हुआ है कि आदिवासी कुड़मी का मुद्दा तप रहा है।
कुड़मी को आदिवासी का दर्जा दिलाने के नाम पर विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक दलों ने
मोर्चा संभाल रखा है। सड़क से सदन तक इसकी गूंज सुनाई दे रही है। ग्रामीण क्षेत्र
में इसको लेकर बहस छिड़ी हुई है। जहां एक ओर कुड़मी समाज अपने को आदिवासी साबित
करने में जुटा हुआ है, वहीं दूसरी ओर आदिवासी
जनजाति समाज इसे किसी प्रकार स्वीकार नहीं कर रहा है।
--- इस मुद्दा को लेकर.. दोनों समाज में मतभेद भी बढ़ रहे हैं। एक ओर आजसू के जिला वरीय उपाध्यक्ष गंगाधर महतो ने कहा कि कुड़मी आदिवासी ही है। भारत का प्राचीनतम समाज है। हमारी संस्कृति, रीत-रिवाज सब कुछ आदिवासियों जैसे ही हैं। पहले कुड़मी को आदिवासी की श्रेणी में ही रखा गया था। एक षड्यंत्र के तहत इसे पिछड़ा वर्ग में शामिल कर दिया गया। हम अपने हक की लड़ाई लड़ेंगे।.
वहीँ दूसरी ओर JMM
नेता सह जगन्नाथपुर प्रखंड अध्यक्ष संदेश सरदार ने कहा कि प्रत्येक समाज का
अपेक्षित विकास होना चाहिए। आदिवासी और कुड़मी अलग-अलग हैं। इनकी परंपरा व
रीत-रिवाज सब अलग-अलग है। फिर ये हाई तोबा क्यों।
--- इस मामले में कुड़मी नेता
त्रिनाथ महतो ने कहा कि शुरू से परंपरा रही है कि कुड़मी-आदिवासी भाई-भाई। हम खुद
आदिवासी कहलाना पसंद कर रहे हैं तो इस पर किसी को क्या आपत्ति है।
वहीँ.. सामाजिक कार्यकर्ता
निवास तिरिया ने कहा कि जो हमेशा आदिवासियों को हीन दृष्टि से देखते आए हैं, आज खुद आदिवासी कहलाना क्यों पसंद कर रहे हैं।