झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में मकर संक्रांति को ढाको जलाया जाता है.. जानिए विस्तार से क्या है ढाको?
झारखंड प्रदेश के कई ग्रामीण क्षेत्रों में मकर सक्रांति के दिन ग्रामीण युवा और बच्चे भोर सुबह को नहाकर ढाको को जलाते है। और ठंड में पूरा परिवार आग का आनंद लेता है।
कई दिन पहले से इसकी तैयारी शुरू कर देते है..
झारखंड के कई गांवों में मकर सक्रांति के दिन ढाको को जलाया जाता है। इसके लिए युवा और बच्चे कई दिन पहले से इसकी तैयारी करते है। ढाको बनाने के के मैटेरियल का जुगाड़ करने की शुरुवात मकर सक्रांति के 15-20 दिन पहले से शुरू हो जाती है। ढाको बनाने के लिए ज्यादातर तार का डेमखो काटना, दल काटना, और झाड़ इकट्ठा किया जाता है। ये सब मकर संक्रांति के पहले इसलिए काटा जाता है ताकि इसे धूप में पूरी तरह से सुखाया जा सके। इसके अलावा खंभे के लिए हल्की-पतली लकड़ी या बांस को भी काट के रखते है जिसके भरोसे ढाकों को ऊंचा बनाया जा सके और बांध के रख सके।
क्या है ढाको? और ये कैसे बनता है?
ढाको मुख्यतः तरकुन (तार) पेड़ का का बड़ा पत्ता जिसे क्षेत्रीय लोग "तार का डेमखो" बोलते है, सुखी बड़ी घास-फूस या दल- दल घास, जो कम पानी वाले पोखर या गड्ढा में हुए बड़े घास को कहा जाता है, यह जिसे क्षेत्रीय लोग "दल" या "दल घास" कहते है, झाड, सूखे पत्ते और लकड़ी के बड़े खंबे की मदद से छोटी कुटिया के जैसा बनाया जाता है जिसमें अंदर भी सूखे दल घास, पेड़ के पत्ते, घास -फूस, झाड़ को भर दिया जाता है।
क्या चलती आ रही है परंपरा...
ढाको को मकर संक्रांति के एक दिन पहले ही बनाकर कंप्लीट कर दिया जाता है और उसे अगले दिन मकर संक्रांति के सुबह को अंधेरा छटने से पहले जलाया जाता है। ढाको जलाने से पहले नहाते है और उसके बाद उसमें आग लगाते है। जलते ढाकों के अग्नि में तिल दिया जाता है। ढाको के जलते समय सारे बच्चे "हर.. हर.. हर.. बोम.. बोम.." का जयकारा लगाते है। यह खासकर बच्चों में खुशियों का लहर लेके आते है।