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संपादकीय
10/07/2018 :
जब आईएसआई चीफ हामिद गुल से मुलाकात हो गई
 
इधर उधर की बात के बजाय़ आज अपनी बात करता हूं। हमारे पेशे में किसी से कहीं मुलाकात हो जाना। बात हो जाना। खबर बन जाना। अचरज की बात नहीं। हम पेशेवर “जैक ऑफ ऑल, मास्टर ऑफ नन” कहे जाते हैं। फिर भी मुलाकातों में कुछ मुलाकातें हैं, जो खास बन जाती हैं। जेहन में उतर जाती हैं। मन मस्तिष्क पर छा जाती है। क्योंकि वह चाहत के अनुकुल होती है। ऐसी ही एक मुलाकात पाकिस्तान की खूंखार जासूसी संस्था आईएसआई के चीफ हामीद गुल से रही। अब वो दुनिया में नहीं हैं। आयोजन में भारतीय आर्मी के पूर्व प्रमुख वीएन शर्मा ने सक्रिय भूमिका निभाई थी। मुझ जैसे जिज्ञासु पत्रकार को हामिद गुल के साथ लगा दिया। भलमानुस बन मैं जनरल गुल से पूछता रहा। वो बिना किसी संकोच के बताते रहे। कह रहे थे कि वो जो कुछ कर रहे हैं या करते रहे हैं। वह उनकी ड्यूटी का हिस्सा है। आर्मी मैन के लिए ड्यूटी सबसे बड़ी है। ताज्जुब तो तब हुआ जब वह श्रीमद् भगवतगीता का रेफरेंस देते हुए संस्कृत के साफ उच्चारण में सरपट कह गए ‘कर्मण्ये वाधिकारस्त मा फलेसू कदाचन।‘ फिर मुस्कुराते हुए बताने लगे कि आजाद देश के तौर पर पाकिस्तान नया है। उसको अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनानी है। यही उसकी सबसे बड़ी चुनौती रही। अगर खुराफात नहीं करते, तो उनको सब भारत का ही हिस्सा मानते हैं। भारत सदियों पुराना है। अलग नेशन के तौर पर पहचान बनाने के लिए पाकिस्तान को कंफ्लिक्ट पसंद है। जब भी कोई विवाद हुआ है, कोई युद्ध हुआ है, तो उसमें सीधा माइलेज पाकिस्तान को मिला है। हमारी मेहनत पर पाकिस्तान की पहचान पुख्ता बनी है। बेतक्कलुफ होकर हामिद गुल स्ट्रेटेजी के राज उगलते रहे। पूरी तैयारी के साथ विभिन्न युद्धों के दौरान उनकी तैनाती पर हम सिलसिलेवार पूछते रहे। उनके साथ होस्टल के उस कमरे तक गए जहां वह ट्विन बेड में से एक पर सोते और खुद को जांबाज आर्मी अफसर के तौर पर तैयार करते रहे। दूसरे बिस्तर पर सोने वाला सहपाठी के बारे में बताया कि वह भी भारतीय फौज का नेतृत्वकर्ता बना। दुश्मन मुल्क के जासूसी संस्था में काम करने की वजह से उनको उसकी पूरी खबर रही। कई बार संपर्क साधने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं रहे। फिर भी पाकिस्तान आर्मी को इतना तो बता ही दिया कि वह भारतीय सैन्य अधिकारी का मन और मिजाज कैसा है। ब्रेन मैपिंग से पता कराया कि प्रतिकूल परिस्थिति में वो कैसा निर्णय कर सकता है। तब टीवी पत्रकारिता परवान नहीं चढी थी। अखबारनवीस के तौर पर उनसे आरआईएमसी (राष्ट्रीय इंडियन मिलेट्री क़ॉलेज) में मिल रहा था। उनसे हुई बातचीत को उस दौर में दैनिक जागरण में जमकर लिखा था। खूब छपा था। हामिद गुल ही नहीं वहां मुलाकात याह्या खान और शहरयार खान जैसे पाकिस्तान के दिग्गज राजनयिकों से हुई। उन जैसे कई और अफसर व राजनयिक मिले जो पढे तो भारत में लेकिन उनके कर्तव्य के हिस्से में भारत को तबाह करने और प्रपंच रचने का काम आया। वो उसे बखूबी निभाते रहे। तारीफ पाते रहे। उस मुलाकात के बाद मेरी समझ ने विस्तार लिया। तबियत से मान लिया कि इंसान परिस्थितियों का गुलाम होता है। हामिद गुल भारत के खिलाफ पाकिस्तान के परोक्ष युद्ध की शुरुआत यानी मार्च 1987 से मई 1989 तक आईएसआई के चीफ रहे। पत्रकारिता में आतरिक सुरक्षा और आतंकवाद मेरा पसंदीदा विषय है। इसलिए उनसे हुई बातचीत के जरिए व्यापक पर्सपेक्टिव में चीजों को समझने में लगा रहा। कई गुत्थियां सुलझाने में मदद मिला। शुरुआती जिज्ञासा हल करने में पिताजी और बाद में अपने सुपर हीरो यानी भारतीय वायुसेना के जांबाज अफसर स्क्वाडर्न लीडर आर एल दास काफी मददगार रहे। उनसे लोमहर्षक किस्से सुनता रहा। भारतीय काउंटर रणनीति को समझता रहा। बाद में पेशेवर पत्रकार बना तो नई दिल्ली के नार्थ ब्ल़ॉक और साउथ ब्लॉक के रणनीतिकारों से जमकर मिलता समझता रहा। उनसे मिली खबर के आधार पर लिखता रहा कि दुश्मन मुल्क किन घटिया तरकीबों को लेकर हमसे मुकाबिल हैं। जिन परोक्ष युद्ध में हम फंसे है। उससे उबरन की हमारी क्या तैयारियां है। आरआईएमसी एल्यूमनी मीट के उस कार्यक्रम में राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा पहुंचे थे। उनकी सेहत ठीक नहीं थी। रेड कारपेट पर धीमी रफ्तार में चल रहे थे। हमारे लोकतांत्रिक मुल्क में राष्ट्रपति को भारतीय सेना का प्रमुख बनाया गया है। उनके प्रति अद्भूत सम्मान का नजारा था। मेरे बगल में याह्या खान खड़े थे। तीन दिन साथ रहने की वजह से रिश्ते कुछ अनौपचारिक हो चुके थे। बखूबी याद है कि पाकिस्तान के प्रमुख राजनयिक हस्ती याह्या खान ने सम्मान के दृश्य से अभिभूत होकर कहा था, यही वो बात है जो आपसे हमें यानी पाकिस्तान को अलग करती है। उनके यहां मतलब याह्या खान के पाकिस्तान में इतना बुजुर्ग व्यक्ति सेना का कमांडर हो ही नहीं सकता। अगर हो जाए, तो सेहत की वजह से शायद ही वो सम्मान, वो प्रोटोकॉल मिल पाए। पंजाब से आंतकवाद विदा लेने के बाद से हमारे रणनीतिकारों के हौसले बुलंद हैं। परोक्ष युद्ध में भी हमारी ही जीत होगी उसकी दृढ उम्मीद बनी है। फिर भी जम्मू कश्मीर के परोक्ष युद्ध में पाकिस्तान हमें लगातार पछाड़ता दिख रहा है। हामिद गुल के जमाने यानी 1989 से हम उससे हारे जा रहे हैं। उससे पहले आमने सामने की लड़ाई में हर बार उसे नाको चने चबबा चुके हैं। उसने हमारा लोहा मान रखा है। सीधे ललकारने और लड़ने की अब उसकी हिम्मत नहीं है। परोक्ष युद्ध के प्रमुख रणनीतिकार के तौर पर आईएसआई चीफ हामिद गुल काफी कुख्यात रहे। भारत के खिलाफ जहर बोने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह याद 1997 की है। पाकिस्तान के जन्म के पचास साल पूरे हुए थे। देहरादून के आरआईएमसी का 75वां सालगिरह था। प्रागंण में अद्भूत दृश्य था। भारतीय और पाकिस्तानी सेना के कई घुरंघर अफसर एल्यूमनी के नाते एकदूसरे के गले मिल रहे थे। दोस्तों को याद कर रहे थे। कई लंगोटिया यार जो साथ खेले पढे उनकी शहादत के गम में आंसू बहा रहे थे। हम द्रवित होकर देख रहे थे कि भाई-भाई अगर दुश्मनी पर उतर आए, तो वक्त को इस तरह खून के आंसू रुला देता है।महाभारत में यही तो हुआ था।



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