14.1 C
Ranchi
Saturday, December 13, 2025
Contact: info.jharkhandlife@gmail.com
spot_img
HomeBlogसोनिया फैक्टर’ को समझा जाना बाकी है...

सोनिया फैक्टर’ को समझा जाना बाकी है…

spot_img

साल 1998 के शुरुआती महीनों की बात है। लंबी अटकलों को विराम देते हुए सोनिया गांधी ने औपचारिक रूप से राजनीति में उतरने में का एलान किया था। उसके तुरंत बाद किये गये तमाम ओपिनयन पोल हैरान करने वाले आंकड़े बता रहे थे।

Follow WhatsApp Channel Follow Now
Follow Telegram Channel Follow Now

नये तेवर के साथ लांच हुई विनोद मेहता की पत्रिका आउटलुक ने अपने सर्वे ये बताया था कि निजी लोकप्रियता के मामले में विपक्ष की राजनीति के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी और सोनिया गांधी में कोई ज्यादा बड़ा फासला नहीं है।

1998 और 1999 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा सीटें मिली थीं। लेकिन सोनिया गांधी के नेतृत्व संभालते ही मर रही कांग्रेस अचानक पुनर्जीवित हो उठी थी और दोनों चुनावों में उसका वोट शेयर बीजेपी से ज्यादा रहा था। ऐसा तब था, जब इन दोनों चुनावों में पोखरन टू और करगिल के बाद वाजपेयी हीरो की तरह उतरे थे और बीजेपी ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल को एक बड़ा मुद्दा बनाया था।

राजनीति विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते `सोनिया फैक्टर’ ने मुझे अचंभित किया था। अचंभित मैं आज भी हूं।

सक्रिय राजनीति से लगभग किनारा कर चुकी सोनिया गांधी के जन्मदिन पर मैंने करीब 700 शब्द का एक लेख फेसबुक पर डाला था। व्यूज़ के मामले में वह लेख वन मिलियन के आंकड़े की तरफ बढ़ता दिखाई दे रहा है।

साढ़े आठ हज़ार से ज्यादा लाइक और साढ़े सात सौ से ज्यादा शेयर के बाद अब भी उस लेख का पढ़ा जाना जारी है। फेसबुक मुझे लगातार सूचनाएं भेज रहा है कि व्यू और एंगेजमेंट के मामले में यह लेख अप्रत्याशित रूप से चौका रहा है। मेरे प्रोफाइल पेज पर जाकर वह लेख आप देख सकते हैं।

आखिर किस तरह के पाठकों में सोनिया गांधी को लेकर इतनी जिज्ञासा और प्रेम है, यह समझने के लिए मैंने काफी मेहनत की। शेयर और कमेंट करने वाले सैकड़ों प्रोफाइल खंगाले तो समझ में आया कि लगभग शत-प्रतिशत लोग आम पाठक हैं।

मेरे हिसाब से सोनिया गांधी पिछले 50 साल की सबसे सम्मानीय राजनीतिक शख्सियत हैं और नैतिक मानदंडों पर वो अपने तमाम समकालीनों से मीलों आगे हैं।

इमरजेंसी के बाद भारतीय राजनीति में पक्ष और विपक्ष का विभाजन स्थायी रूप से गहरा हुआ। आक्रमकता बढ़ी और राजनीतिक लड़ाइयां निजी घृणा में बदली। लेकिन `सोनिया युग’ ने कुछ समय के लिए इस प्रवृति पर ब्रेक लगाया।

मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी की जोड़ी ने शालीनता और राजनीतिक शुचिता को ऐसी ताकत बनाई कि विरोधियों तक के लिए उनपर सीधा हमला करना लगभग नामुमकिन हो गया। यही वजह है कि शुरुआती दिनों में सोनिया गांधी के प्रति विरोध जताने के लिए सिर मुड़वाने जैसे पैंतरे अपनाने वाली बीजेपी के सर्वोच्च नेता अटल बिहारी वाजपेयी को यह कहना पड़ा कि विदेशी मूल के मुद्दे पर सोनिया को निशाना बनाना उनकी पार्टी की भूल थी।

सोनिया गांधी को इंदिरा गांधी की बहू और राजीव गांधी की पत्नी के रूप में देखना उनकी निजी उपलब्धियों को छोटा और एक `स्त्री राजनेता’ के रूप में उन्हें स्टीरियो टाइप करना होगा। उनका संघर्ष किसी भी भारतीय राजनेता से बड़ा है और राजनीतिक फैसले किसी भी राजनेता से ज्यादा नैतिक और प्रगतिशील थे।

नैतिकता के ढलान पर फिसलती भारतीय राजनीति में `सोनिया युग’ एक स्पीड ब्रेकर की तरह आया और सियासत से उनकी अनौपचारिक विदाई भारतीय राजनीति के नये पतन का प्रस्थान बिंदु बना। ठीक से देंखें तो समझ में आता है कि भारतीय राजनीति में सोनिया गांधी की वास्तविक भूमिका का सर्वाग्रही आकलन ठीक से किया जाना अभी बाकी है।

Follow WhatsApp Channel Follow Now
Follow Telegram Channel Follow Now
spot_img
राकेश कायस्थ
राकेश कायस्थ
Media professional by occupation writer by heart

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

--Advertisement--spot_img

Latest News

spot_img
Floating WhatsApp Button WhatsApp Icon