पारसी लोग अपने ‘रतन’ को प्यार और गर्व से यही कहते थे, हमारा रतन।
कल भारत का सच्चा ज़िंदा रतन चला गया भले ही अब आप मरणोपरांत भारत रत्न देते रहिए। ज़िंदा रहते नहीं दे पाए यह दर्ज रहेगा। शायद इसलिए कि पारसी काम के मतदाता नहीं हैं। भारत में कुल शायद ७०००० बचे हैं। दुनिया में एक से दो लाख के बीच। आज हर शिक्षित भारतीय महसूस कर रहा है कि कोई उसका अपना चला गया है। वह ज़्यादा देखा नहीं जाता था, सुना नहीं जाता था। व्यापारिक अख़बारों और सोशल मीडिया पर कभी-कभार चर्चा हो जाती थी जब कोई नई बड़ी विदेशी कंपनी ख़रीद कर उसे भारतीय बना देते थे। या जब किसी अज्ञात कुल-वय नवोद्यमी को ‘मेंटर-निवेशक’ के रूप में अचानक रतन टाटा का वरद हस्त मिल जाता था। लेकिन दस लाख से ज़्यादा के टाटा कर्मचारी परिवार के सदस्यों से पूछिए, पूरे जमशेदपुर नगर के रहने वालों से पूछिए जो आमरो जमशेद और रतन के हर जन्मदिन को पारिवारिक पर्व की तरह मनाते थे, या उन लाखों अनाम भारतीयों से पूछिए जिनके जीवन को देश के इस सबसे बड़े दानकर्ता के ट्रस्टों-कंपनियों द्वारा संचालित विकास-कल्याण कार्यक्रमों ने सहारा-शिक्षा-स्वास्थ्य-सशक्तीकरण और आगे बढ़ने के अवसर देकर स्पर्श किया है। वे बताएँगे रतन टाटा उनके लिए क्या थे। ——–
हम तीनों ने रतन टाटा को सबसे पहले मुंबई के सबसे सुंदर क्लब यूएस क्लब के लंबे-चौड़े हरे लॉन में देखा था। उसका सारा श्रेय टीटो और हमारी नन्ही पुरवा को है। हम माँ-बाप की निगाहें हरी विस्तीर्ण घास पर इधर-उधर दौड़ती पुरवा पर थीं और उनकी निगाहों ने उसी की तरह भागते-दौड़ते टीटो को देख लिया था। टीटो ने भी उसे देखा, बीच कहीं दोनों टकराए या क़रीब आए लेकिन पुरवा पहले सहमी फिर नाराज़ हो गई। टीटो जी तब तक अपने स्वामी के पास पहुँच कर विश्राम कर रहे थे और स्वामी रतन टाटा उसके साथ वैसे ही लाड़ भरा खेल कर रहे थे जैसे हम पुरवा के साथ करते थे। पुरवा पहुँच गई दोनों के पास और सीधे रतन टाटा पर शिकायत दाग़ दी, “अंकल, इसको मारिए, इसने मुझे काटा..” रतन ने शायद टीटो को डाँटने का नाटक सा किया था फिर उससे कहा, यह अब नहीं काटेगा, खेलो इसके साथ। तो दोनों में दोस्ती हो गई, खेल चालू हो गया। उस सुंदर टीटो की भी आजकल खूब चर्चा हो रही है। बेटी के पीछे चलते मैंने पत्नी को बताया ये रतन टाटा हैं। हम वहाँ पहुँचे, रतन टाटा ने कुछ देर खूब सहजता और सौजन्य से बात की। वे हर रविवार टीटो को पास के अपने कोलाबा वाले अविशाल फ़्लैट से यहाँ लेकर आते थे उसको खुले मैदान और एकांत में खिलाने के लिए। यूएस क्लब में सदस्यता दुर्लभ थी। मूलतः पास के नेवीनगर के सेनाधिकारियों, बाहर से आने वाले सेनाधिकारियों और चुनिंदा नागरिकों को ही मिलती थी। संपादकी के चक्कर में हम भी पा गए थे। उसका भी एक क़िस्सा है पर फिर कभी। तो टाटा जैसे प्रसिद्ध लोगों के लिए समुद्र से सटा हुआ वह क्लब सुरम्य एकांत देता था। सुना था वहाँ धीरुभाई अंबानी भी टहलने के लिए आते थे। हमें कभी दिखे नहीं। इस संक्षिप्त मुलाक़ात के बाद रतन अपनी एसयूवी में अपने पास की सीट पर टीटो को बिठा कर ख़ुद गाड़ी चला कर चले गए। एकाध बार और दिखे, हमेशा अकेले, लेकिन उनसे आगे बढ़ कर परिचय बढ़ाने की कोशिश नहीं की। न वह अपना स्वभाव था न शिष्टाचार। किसी के एकांत को भंग करने का हमें अधिकार नहीं होता। दूसरी और तीसरी बार मिलना पहली के कुछ साल बाद ही हो गया। वह समय मुंबई में १९९२-९३ के हिंदू-मुस्लिम दंगों का था। शिवसेना उस समय अपनी अनौपचारिक सत्ता और शक्ति, जिसे वह ठोकशाही कहती थे, के शिखर पर थी। १९९५ में तो बाल ठाकरे द्वारा मुख्यमंत्री बनाए गए मनोहर जोशी के नेतृत्व में महाराष्ट्र की सरकार के भी शिखर पर पहुँच गई थी।
अपनी विचारधारा की आलोचना करने वालों अख़बारों-पत्रकारों पर खुलेआम हमले करना, उनके दफ़्तरों में तोड़फोड़ और मारपीट करना शिवसैनिकों का आम शग़ल था। मराठी ‘महानगर’ के कार्यालय और उसके संस्थापक-संपादक निखिल वागले पर एक के बाद एक कई हमले हुए। दूसरों पर भी। इसके विरोध में एडिटर्स गिल्ड ने देश के सबसे बड़े और सम्मानित संपादकों के नेतृत्व में शिवसेना भवन के सामने दिन भर का धरना दिया। सूत्रधार हमारे प्रभाष जी थे। इनमें टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, मराठी महाराष्ट्र टाइम्स, हिंदी जनसत्ता, गुजराती जन्मभूमि, फाइनेंशियल एक्सप्रेस के संपादकगण – दिलीप पडगाँवकर, निखिल चक्रवर्ती, बीज़ी वर्गीज़, प्रभाष जोशी, गोविन्द तलवलकर, बलबीर पुंज आदि शामिल थे। मैं प्रभाष जी के सिपाही के रूप में संचालन कर रहा था। सेना प्रमुख ठाकरे अंदर बैठे थे। सेना के इतिहास में यह अभूतपूर्व घटना थी, अब भी है। ठाकरे ने मनोहर जोशी को मंच पर भेजा कि ‘बालासाहेब’ आप लोगों से बात करना चाहते हैं। अंदर चलिए। सबने साफ़ इंकार कर दिया। कहा, अगर वे बात करना चाहते हैं तो यहाँ आकर मिलें। ज़ाहिर है यह नहीं होना था। धरने के बाद संपादकों का यह शिष्टमंडल मुंबई के कुछ प्रमुख नागरिकों से मिला। दो की याद है। जे आर डी टाटा और बॉंबे डाइँग के मालिक नस्ली वाडिया से। यह जे आर डी से पहली भेंट थी। इसके और दूसरी के बारे में अलग से लिखूँगा। जे आर डी से संपादकों की बातचीत बेहद सार्थक थी। देखा कि सहज महानता कैसी होती है। दंगों से बहुत व्यथित थे। बातचीत करके जब हम सब निकले तो जे आर डी बाहर सीढ़ियों तक छोड़ने आए। उस समय रतन टाटा कॉरिडोर में कुछ अन्य लोगों के साथ खड़े थे। जे आर डी के घोषित उत्तराधिकारी होने के बावजूद वे जिस गहरे आदर, संकोच और विनम्रतापूर्वक के साथ खड़े थे वह असाधारण था। गहरा प्रभाव छोड़ने वाला। उन दिनों मैं मुंबई के १९९३ दंगों में शांति प्रयासों में सक्रिय था। राज्यपाल की शांति समिति का सदस्य था। हम लोग धारावी पर ध्यान केंद्रित किए हुए थे बाक़ी जगहों के साथ-साथ। गांधी जी के मुंबई निवास मणि भवन, सर्वोदय मंडल, दिलीप कुमार के घर, राजभवन, धारावी में पुलिस थानों, अहातों, घरों आदि में बैठकें चलती रहती थीं। शबाना आज़मी, सुनील दत्त, फारूक शेख़ आदि साथ रहते। सबसे समर्पित भाव से शबाना। ऐसी ही एक बैठक दक्षिण मुंबई के कफ़ परेड में भारत की पहली मार्केट रिसर्च कंपनी ‘मार्ग’ के दफ़्तर में उसके संस्थापक टीटू अहलूवालिया के कार्यालय में हुई। दक्षिण और मध्य मुंबई के कुछ बेहद वरिष्ठ नागरिक निमंत्रित थे। उनमें रतन टाटा भी थे। बातचीत का संचालन टीटू और मैं कर रहे थे। रतन थोड़ी देर से आए और पीछे एक कुर्सी पर चुपचाप बैठ गए। जब बोल रहा वक्ता रुका तो मैंने रतन से आग्रह किया कि वे अंडाकार मेज़ की पहली क़तार में आ जाएँ। ज़ाहिर है हर व्यक्ति उन्हें जगह देना चाहता था। वे बैठे रहे, नहीं उठे। पूरी सभा के कई बार आग्रह करने पर बेहद संकोच के साथ आगे आए। अपनी बारी आने पर जब वे बोले तो घोर अन्तर्मुखी और मितभाषी रतन का गोरा, ग्रीक देवताओं जैसा धीरोदात्त सुंदर चेहरा पीड़ा और क्षोभ से लाल था। उनके शांत लेकिन उत्कट सघनता से निकलते शब्दों के पीछे अपनी मुंबई की उस रक्तरंजित दुर्दशा पर उमड़ती भावनाओं की गहराई भीतर तक उतर जाने वाली थी। उस दिन जाना कि यह एकांतप्रिय, अपनी निजता को सायास बचाए रखने वाला व्यक्ति कितनी गहराई से महसूस करता है, किस व्यापक मानवीय संवेदनशीलता को छिपाए है। उनकी उदारता, दानशीलता, विजन की व्यापकता, दूरदृष्टि, टाटा समूह को अभूतपूर्व वैश्विक ऊँचाइयों तक ले जाने की असाधारण उपलब्धियाँ, पशुओं-विशेष तौर पर आवारा कुत्तों- के लिए आश्चर्यजनक प्रेम, एकांतप्रियता, प्रचार-विमुखता, महत्व-सम्मान-प्रशंसा पाने से सहज संकोच, विश्वप्रसिद्ध टाटा संस्कृति की विरासत को आगे ले जाने में योगदान आदि ऐसी न जाने कितनी बातें हैं जो किताबों-किस्सों से इतिहास में बनी रहेंगी। यह एक छोटी सी श्रद्धांजलि है उस रतन को जिसकी असामान्य मानवीयता और भीतरी ऊँचाई का छोटा सा स्पर्श पाने का सौभाग्य मुझे मिला। रतन टाटा की तुलना शायद केवल उनके आदर्श और गुरु जे आर डी टाटा से ही की जा सकती है। दोनों महानता के लिए पैदा हुए थे। They were born for greatness. नमन, रतन।
साभार- राहुल देव Rahul Dev @rahuldev2
पत्रकार। भारतीय भाषाओं का संवर्धन। सम्यक् न्यास। Journalist, Indian languages activist. Samyak Foundation. Blog: http://samyakbharat.blogspot.com